शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

लापरवाह चालकों को अपराध बोध कराने के लिए हुआ है संशोधन

 




यह इस देश की नियति  बन चूका है की अब भी  जब बाकायदा बने हुए कानून को बेअसर पाकर उसमें  यथोचित और सामयिक  वृद्धि किए जाने भर से वाहन चालन के सबसे बुनियादी नियम " जान सबसे ज्यादा जरूरी है " में बांधने भर कि आशंका मात्र से विचलित आशंकित ट्रक बस चालकों के समूह ने हड़ताल कर इसका भरसक प्रतिरोध किया।  

इस बार सरकार द्वारा पारित आपराधिक कानूनों में किए गए संशोधन में इस अपराध जिसे अब तक गैर इरादतन मान समझ कर लोगों की जान तक लिए  जाने वाले हादसे /अरपाड़ों में बेतहासा वृद्धि को देखते हुए पहले की बहुत मामूली सी सजा को बढ़ाकर दस वर्ष सश्रम कारावास की सजा कर दिया , ये उन परिस्थितियों में के लिए रखा गया जब वाहन चालक दुर्घटना होने के बाद घायल या चोटिल व्यक्ति को छोड़कर भाग निकलते हैं।  

ज्ञात हो की हाल ही में परिवहन मंत्री श्री नितिन गडकरी ने पिछले कुछ वर्षों में हुई सड़क दुर्घटनाओं में हुई मौतों का आंकड़ा सामने रखते हुए दुःख जताया था कि सबके इतने प्रयासों के बावजूद भी दुर्घटनाओं में अपेक्षित कमी नहीं आई है।  परिवहन मंत्री ने भी यातायात नियमों के अनुपालन में सख्त कानूनों पर सहमति जताई थी।  

आंकड़ों के मुताबिक़ देश औसतन एक हज़ार से अधिक सड़क दुर्घटनाए प्रतिदिन जिनमें 450 से अधिक मौतें दर्ज़ की जाती हैं।  यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है की इस बीच जब विश्व में होने वाली दुर्घटनाएं और उनमें गई जानों की दर में वैश्विक स्तर पर पांच प्रतिशत की कमी आई दर्ज़ की गई तो वहीँ भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों में इसमें दस प्रतिशत से अधिक की दुखद वृद्धि दर्ज़ की गई है।  

ऐसे में व्यवस्था ये रख दी गई कि ये दुर्घटना होने के अगले चौबीस घंटे में वाहन चालक सबसे नजदीकी पुलिस को इस बात की जानकारी नहीं दे देता और छिपा कर रखता है , दुर्घटना में पीड़ित घायल चोटिल व्यक्ति को छोड़कर भाग जाता है तो ऐसे में उसके इस कृत्य को ज्यादा गंभीर मानते हुए अधिक कठोर सजा दिए जाने की व्यवस्था की गई है।  

इस नई व्यवस्था में जहाँ सरकार ने अन्य अपराधों की समाज में वृद्धि को देखते हुए सजा में भी कठोरता दिखाने की नीति के तहत ही दुर्घटना के कारण लोगों की मौतों के बढ़ते आंकड़े को देखते हुए वाहन चालकों में यातायात जिम्मेदारी का बोध कराने के लिए सजा को अधिकतम रखने की मंशा जताई।  वहीँ अभी कुछ दिनों पूर्व ही इसी केंद्र सरकार ने एक शानदार निर्णय लेते हुए सभी वाहन निर्माता कंपनियों से भविष्य में बनाए जाने वाले सभी बस और ट्रकों के केविन में वातानुकूलन की अनिवार्य व्यवस्था देने को कहा था तब यही वाहन चालक संघ और संगठन सरकार की तारीफों के पल बाँध रहा था।  

वास्तव में कानून और सजा के दुरूपयोग की आशंका से चिंतित परिवहन संघों और चालाक समाज को खुद ही आगे आकर सरकार।  प्रशासन के साथ उन उपायों पर चर्चा करनी चाहिए नीतियां नियम बनवाने चाहिए जिससे सड़क दुर्घटनाओं में कमी लाइ जा सके।  पिछले कुछ समय में दुर्घटना के बाद वाहन चालकों के चोटिल व्यक्तियों और घायलों को वहीँ असहाय छोड़ कर भागने की बढ़ती प्रवृत्ति से दुर्घटना में समय पर चिकित्स्कीय मदद न मिल पाने के कारण जान गंवाने वालों की संख्या में वृद्धि ने सरकार और विधि निर्माताओं को इस और देखने करने पर विवश किया।  

इस सन्दर्भ में दो बातें बिलकुल स्पष्ट हैं , दुर्घटनाओं , वाहन चालकों द्वारा यातायात नियमों की अनदेखी अवहेलना आदि के कारण सड़क दुर्घटनाओं में लगातार हो रही वृद्धि तथा दुर्घटना के चोटिल/ घायल लोगों को समय पर समुचित सहायता न मिल पाने के कारण होने वाली मौतों की भी बढ़ती संख्या।  असल में वाहन चालकों को पकड़ पकड़ कर जेल भेज दिए जाने जैसा बताया और जताया जा रहा यह कानों वास्तव में दुर्घटना पीड़ित घायलों के प्रति दुर्घटना करने वाले वाहन चालकों को नैतिक दायित्व बोध कराना है। 

 " जीवन सर्वोपरि है , इसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए " यही बुनियादी सिद्धांत है।  

सोमवार, 1 जनवरी 2024

बड़े न्यायिक सुधारों की कवायद

 




पिछले कई वर्षों से न्यायिक प्रक्रियाओं तथा न्याय प्रशासन में परिवर्तन और सुधारों की कवायद में लगी केंद्र सरकार ने अब इस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं।  हाल ही में समाप्त हुए संसद सत्र में तीन प्रमुख विधिक संहिताओं में वर्तमान परिदृश्य के अनुरूप नवीन परिवर्तन व सुधार के बाद , संशोधित करके सामयिक और परिमार्जित किया गया है।  ज्ञात हो कि इन संहिताओं में परिवर्तन और सुधार की जरूरत बहुत सालों से महसूस की जा रही थी।

भारतीय दंड संहिता , दंड प्रक्रिया संहिता तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम – तीनों  प्रमुख विधिक संहिताओं में वर्णित व्यवस्थाएं जो ब्रिटिशकालीन परिस्थितियों में बनाई व लागू की गई थीं।  स्वतंत्रता के दशकों बाद तक औचित्यहीन होते जाने वाले बहुत से क़ानूनों को बदलने समाप्त किए जाने की जरूरत को पूरा करने के उद्देश्य से सरकार ने भारतीय न्याय संहिता , भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (प्रक्रिया संहिता ) , तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम को पारित कर दिया।

इन संहिताओं के परिमार्जन में सबसे अहम् जिस बात को रखा गया है वो है इसके प्रावधानों , व्यवस्थाओं और पूरी परिकल्पना वर्तमान परिस्थितयों परिवर्तनों के अनुरूप सामयिक और तार्किक किए जाएं।  ब्रिटिशकालीन व्यवस्थाओं ,प्रक्रियाओं को परिष्कृत किया जाना विधि के शासन को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।  स्वयं न्यायपालिका भी अपने समख विमर्श और मंतव्य के उद्देश्य से रखे हर प्रश्न को उसी सामयिक प्रासंगिकता और सामाजिक व्यवहार में हुए परिवर्तनों की कसौटी पर अनिवार्य रूप से परखती अवश्य है।  

प्रक्रिया से लेकर दंड प्रावधानों तक में परिवर्तन के बाद बहुत सी नवीन व्यवस्थाएं दी गई हैं , जैसे एक तरफ जहां अपराधों के लिए विशेषकर व्यक्ति समाज देश के विरुद्ध किए गए अपराधों में सज़ा को अधिक कठोर किया गया है वहीँ पहली बार अस्पताल , यातायात , सामुदायिक केंद्रों आदि में समाज सेवा या सामुदायिक सेवा का दायित्व दिया जाना को सुधारात्मक सजा विकल्प के रूप में शामिल किया गया है।

भारतीय न्याय प्रक्रिया में समय से निर्णय न हो पाने के कारण “विलम्बित न्याय अन्याय के समान लगने लगता है ” की आलोचना झेलती ,भारतीय न्यायिक प्रक्रियाओं को थोड़ा अधिक समयबद्ध करके विधिक प्रक्रियाओं को अधिक तीव्र और प्रभावी बनाने के लिए परिवर्तित संहिता में काफी नई व्यवस्थाएं की गई हैं।  अपराध के कारित होने से लेकर , प्राथमिकी , अन्वेषण ,अभियोग के अतिरिक्त वादों के निर्णय/आदेश पारित करने के लिए भी निश्चित व पर्याप्त समय सीमा तय कर दी गई है।

किसी भी परिवार ,समाज देश की शान्ति , सद्भाव और सबसे जरूरी सुरक्षा के लिए आवश्यक तत्व -विधि का शासन।  यानि समाज सम्मत नीति नियमों का अनुपालन।  अपराध संहिता में पहली बार आतंकवाद की व्याख्या को व्यापक करके समाहित किया गया है। देश की आर्थिक सुरक्षा को क्षति पहुंचाने का कार्य , भारतीय मुद्रा की नक़ल आदि से क्षति आदि को भी दायरे में लाया गया है।

महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराध करने वालों पर और अधिक दृढ़ कठोर होकर ऐसे अपराधों को अधिक जघन्य मान कर दंड अधिक कठोर और इन अपराधों में अभियोजन , कार्रवाई को तीव्र करने विषयक परिवर्तन समायोजित किए हैं।  पिछले दिनों आवेश में उन्मादी भीड़ द्वारा पीट पीट कर की गई हत्याओं -मॉब लॉन्चिंग को भी बर्बर अपराध मानकर अधिकतम दंड -मृत्यदण्ड देने का प्रावधान किया गया है।  साक्ष्य अधिनियमों में बुनियादी सुधार करते हुए सभी उन्नत तकनीकों के उपयोग और वैज्ञानिक परिणामों को विधिक मान्यता देने विषयक संशोधन भी किए गए हैं।

ज्ञात हो कि वर्तमान केंद्र सरकार शुरू से ही भारतीय न्याय व्यवस्था , न्याय प्रशासन तथा न्यायिक प्रक्रियाओं में सामयिक सुधारों की  प्रबल पक्षधर रही है यही कारण है कि वर्तमान सरकार के संसद सत्रों में सर्वाधिक अधिनियम कानून बनाए जाने , पारित करके लागू किए जाने के रिकार्ड बने , नीतियां बानी तथा अनुसंधान अन्वेषण से निरंतर सुधर की कोशिश की जाती रही है / विधिक व्यवस्थाओं प्रक्रियाओं व संहिताओं  में परिशोधन , परिवर्तन नवीनीकरण जैसे दुरूह /दुष्कर दायित्व को वहां करने की पहल करने के लिए सरकार साधुवाद की पात्र है।

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

केंद्र सरकार लाएगी :समान नागरिक संहिता कानून : विधि आयोग का गठन

 


केंद्र सरकार ने जल्दी ही पूरे देश के लिए समान नागरिक संहिता यानि UCC Uniform Civil Code , को लाने की तैयारी में है । ज्ञात हो कि अभी कुछ राज्यों में होने जा रहे विधान सभा चुनावों से पहले ही भाजपा शासित राज्यों ने गुजरात , हिमाचल आदि ने बाकायदा घोषणा पत्र में इस बात का संकल्प लिया है । 

इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए कल सरकार ने नए विधि आयोग का गठन कर दिया ।विदित हो कि , विधि आयोग का गठन 4वर्षों के बाद किया गया है व कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति श्री आर आर अवस्थी को विधि आयोग का अध्यक्ष बनाया गया है । 



विधि आयोग का गठन पिछले चार वर्षों से लंबित था । श्री अवस्थी को अध्यक्ष बनाए जाने के अतिरिक्त न्यायमूर्ति के टी संकरन, प्रोफेसर आनंद पालीवाल , प्रोफेसर रेखा आर्य ततहा एम करुणानिधि को सदस्य के रूप में नामित किया गया है । 


केंद्र सरकार ने विधि आयोग के गठन के लिए दायर जनहित याचिका के उत्तर में अदालत को बताया था कि जल्दी ही विधि आयोग का गठन कर , समान नागरिक संहिता का मामला विधि आयोग के पटल पर रखा जाएगा । 



मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

नहीं कम होगी मुकदमों के निस्तारण की रफ़्तार




देश के अन्य सरकारी संस्थानों की तरह ही देश की सारी विधिक संस्थाएं ,अदालत , अधिकरण आदि भी इस वक्त थम सी गई हैं।  हालाँकि सभी अदालतों में अत्यंत जरूरी मामलों की सुनवाई के लिए बहुत से वैकल्पिक उपाय किये गए और वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये उनमें सुनवाई करके आदेश जारी भी किये जा रहे हैं।  ऐसे ही बहुत सारे आदेश कोरोना टेस्ट किट और उनके मूल्य के निर्धारण आदि मामलों में दिए भी गए हैं।  

किन्तु आम जन और विशेषकर अदालतों में अपने लंबित मुकदमों मामलों के सभी पक्षकार इस बात से जरूर चिंतित और जिज्ञासु होंगे कि ऐसे में जब पूरे लगभग दो माह का समय ऐसा निकल गया है जब उनके मामलों की सुनवाई नहीं हुई तो इससे उनके मामलों पर क्या और कितना असर पडेगा।  

पहले बात करते हैं उन मामलों की जो अदालतों में लंबित थे और जिन पर सुनवाई जारी थी तो सभी अदालतों ने तदर्थ और अंतरिम व्यवस्था देते हुए सभी लंबित मामलों को एक चरणबद्ध  व नियोजित तरीके से इस प्रकार स्थगन दिया है कि सभी मुकदमों को सिर्फ और सिर्फ एक तारीख के लिए टाला गया है ठीक उस स्थिति जैसे जब अदालत के पीठासीन अधिकारी अवकाश पर होते हैं या फिर अदालतों में मुक़दमे का स्थानांतरण होने में जो समय लगता है।  

अदालत के खुलते ही पहले से लंबित मुकदमों के साथ साथ इन सभी स्थगित मुकदमों की सुनवाई भी तीव्र गति से की जाएगी।  अभी से ही न्याय प्रशासन ने न सिर्फ वर्ष 2020 के लिए निर्धारित ग्रीष्म व शीत ऋतु के अवकाशों को रद्द करने का इशारा दे दिया है बल्कि सांध्य कालीन अदालत लोक अदालत और विशेष अदालतों की विशेष व्यवस्था से जल्दी से जल्दी सबकुछ पटरी पर लाने की तैयारी कर ली है।  

इन सबके अतिरिक्त विशेष महत्व के बहुत जरूरी मुकदमों और मामलों को सम्बंधित पक्षकारों द्वारा दिए गए प्रार्थनापत्र के आधार पर सुनवाई में प्राथमिकता देने की भी व्यवस्था रहेगी ही।  

ध्यान रहे कि देशबन्दी से रोजाना घटित हो रहे लाखों अपराध अपने आप ही रुक से गए हैं , या कहें कि अपराधियों को अपराध कारित करने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा रहे और ये इस लिहाज़ से भी ठीक है कि जो पुलिस अभी कोरोना काल में देशबन्दी को सफल बनाने में अपना जी जान समर्पित किये हुए है उसे कम से कम इस मोर्चे पर अपना ध्यान देने की जरूरत नहीं पड़ रही है।  हालांकि छिटपुट घटनाओं के कारण पुलिस को अपराधों की तरफ से पूरी तरह मुक्ति तो नहीं ही मिली है।  

जैसी  कि समाचार मिल रहे हैं इस समय में घरेलु हिंसा के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई है जो कि इसलिए भी स्वाभाविक सी लगती है कि शराब ,सिगरेट ,गुटखे आदि के व्यसन से बुरी तरह लिप्त समाज इस समय आने वाले भविष्य में अपने रोजगार व्यापार के प्रति नकारात्कमक अंदेशे के कारण अधिक हताश व क्रोधित भी होगा।  लेकिन ये मामले किसी भी तरह से अदालत के मुकदमे निस्तारण की रफ़्तार को धीमा नहीं करेंगे।  

जहां तक मेरा आकलन है देशबन्दी खुलने के एक माह के भीतर ही देश की सभी अदालतें अपनी पुरानी व्यवस्था और पुराने रफ़्तार में ही आ जाएंगी।  अभी तो यही आशा की जा सकती है।  

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

न्यायपालिका पर उठते सवाल


पिछले कुछ समय से न्यायपालिका से जिस तरह की खबरें निकल कर सामने आ रही हैं वो कम से कम ये तो निश्चित रूप से ईशारा कर रही हैं कि , न्यायपालिका की प्रतिबद्धता और जनता के बीच बना हुआ उनके प्रति विश्वास अब पहले जैसा नहीं रह पायेगा | रहे भी कैसे एक के बाद एक नई नई घटनाएं ,आरोप ,व जैसी जानकारियां निकल कर आम लोगों के बीच पहुँच रही हैं वो न तो न्यायपालिका के लिए स्वस्थ परम्परा साबित होगी न ही देश की व्यवस्था के लिए |

पिछले वर्ष न्यायिक इतिहास में पहली बार देश की सबसे बड़ी अदालत के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों (जिनमे से एक आज प्रधान न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं )ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर मनमाने ढंग से काम करने और यहां तक कि महत्वपूर्ण मुकदमों को वरिष्ठ न्यायाधीशों को न सौंप कर कनिष्ठ न्यायाधीश को आवंटित किये जाने और ऐसी ही बहुत सारी असहमतियों को लेकर सभी न्यायमूर्तियों ने प्रेस कांफ्रेस की | यह अपनी तरह का पहला मामला था जब शीर्ष न्यायपालिका अपने अंदरूनी प्रशासनिक कलह को इस तरह से सार्वजनिक रूप से सबके सामने ले आई थी | हालांकि इससे पहले भी समय समय पर शीर्ष न्यायालय के कुछ वरिष्ठ न्यायाधीश बहुत से अलग मामलों पर असहमति जता चुके हैं | 


अभी कुछ दिनों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति पर अपनी ही एक कर्मचारी के शोषण का मामला (जिस तरह से आनन फानन में बिना किसी ठोस न्यायिक प्रक्रिया के इस मामले को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया वो भी खुद न्यायपालिका द्वारा ही वो न्यायपलिका के ऊपर सवाल उठाने के लिए काफी है ) ठंढा भी नहीं हुआ था कि अब फिर हाल ही में पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने न्याय प्रशासन और उच्च न्यायपालिका में चल रही विसंगतियों की ओर खुले आम आरोप लगाए  हैं | 

जैसा कि पहले भी होता रहा है न्यायपालिका खुद अपनी साख स्वतंत्रता पर इसे किसी तरह का आघात मानते हुए तुरंत प्रभाव से पहले मामला उठाने वाले विद्वान न्यायाधीशों को ही किनारे लगा देती रही है (जस्टिस कर्णन व इस तरह के और भी बहुत सारे मामले देखे जा सकते हैं ) , तो इस मामले में भी सबसे पहला जो काम किया गया वो ये कि न्यायाधीश महोदय के काम काज का अधिकार ही उनसे वापस ले लिया गया | 

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि , ऐसे तमाम मामलों में प्रश्न उठाने वाले या आरोप लगाने वाले न्यायाधीशों पर तो कार्यवाही हो जाती है मगर इन आरोपों पर , इन विसंगतियों पर कभी भी न्यायपालिका खुद कोई ज़हमत उठाने की कोशिश नहीं करती | आज आम जनमानस में न्यायपालिका को लेकर जिस तरह का अविश्वास पैदा हुआ और बढ़ रहा है उसके लिए बहुत हद तक खुद न्यायपालिका जिम्मेदार  है | 








आखिर वो कौन से कारण हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक लगातार मुकदमों में भी इज़ाफ़ा हो रहा है और उसी अनुपात में अपराधों में भी ??

इन मुकदमों को समाप्त किए  जाने व भविष्य में इनकी संख्या को नियंत्रित किए जाने को लेकर न्याय प्रशासन ने अब तक क्या और कितना ठोस काम किया है ये खुद न्यायपालिका को बताना चाहिए

देश में खुद को ईमानदारी ,कर्तव्यपरायणता , प्रतिबद्धता का पर्याय कहने बताने वाली न्यायपालिका देश में एक भी ऐसी अदालत नहीं बना पाई जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो

न्यायपालिका में भी भाई -भतीजावाद ,भ्रष्टाचार , लालच ,कदाचार देश की किसी भी संस्था से रत्ती भर भी कम नहीं है और ये दिनों दिन बढ़ रहा है

अदालतें अब किसी तरह फैसला तो सूना रही हैं मगर न्याय करने व न्याय होने से वे कोसों दूर होती जा रही हैं

ऐसे बहुत सारे सवाल और मसले हैं जो सालों से न्यायपालिका के सामने उत्तर की बाट जोह रहे हैं

शनिवार, 31 अगस्त 2019

अब घर बैठे प्राप्त करें अपने मुकदमे की जानकारी




अगर आपका कोई भी मुकदमा/वाद अदालत में लंबित है तो आप अब उसकी जानकारी घर बैठे ही अपने कंप्यूटर या मोबाईल से प्राप्त कर सकते हैं | तकनीक के साथ हाथ मिलाते हुए न्यायालय प्रशासन ने इसके लिए बहुत सारे उपाय किए हैं | बहुत सारे नए एप्स व मोबाईल सेवा का उपयोग करके न सिर्फ मुक़दमे बल्कि अदालतों की ,न्ययाधीशों की ,वाद सूची ,फैसले आदेश आदि की पूरी जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं | संक्षेप में इस चित्र के माध्यम से बताया गया है | विस्तार से जानने व पढ़ने के लिए जुड़े रहें और किसी भी शंका सलाह सुझाव के लिए प्रश्न करते रहें 


रविवार, 6 जनवरी 2019

आखिर क्यूँ कम नहीं हो रहे लंबित साढ़े तीन करोड़ मुक़दमे -



आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि जब भी न्यायिक जगत के किसी कार्यक्रम में माननीय न्यायमूर्तियों को अपना संबोधन रखने का अवसर दिया जाता है , फिर चाहे वो अवसर कोई भी क्यूँ न हो वे एक बात का उल्लेख परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जरूर कर जाते हैं और वो होता है कि , न्यायपालिका में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे ऐसे हैं जो निस्तारण की बाट जोह रहे हैं | और सबसे हैरानी और हास्यास्पद बात भी ये है कि ऐसा कम से कम पिछले एक दशक से अधिक से कहा जा रहा है | और ये भी कि , लगातार कहा जा रहा है |

ये स्थिति तब है जब देश भर में लगने वाली और  अब तो नियमित रूप से प्रतिमाह आयोजित की जाने वाली लोक अदालतों में हज़ारों और यहाँ तक कि लाखों मुकदमों के निस्तारण , मध्यस्थता केन्द्रों के माध्यम से भी हज़ारों मुकदमों के सुलह समाप्ति के आंकड़े भी लगभग साथ साथ ही आते रहे हैं तो फिर आखिर ये समस्या ज्यों की त्यों क्यों और कैसे बनी हुई है ?????

पिछले दो दशकों से अधिक से राजधानी की जिला अदालत में कार्य करते हुए , एक विधिक शिक्षार्थी के नाते और लगातार इस विषय पर सब कुछ पढ़ते देखते हुए जब मैंने इस विषय पर नज़र बनाई तो जो कुछ कारण स्पष्टतया मेरे सामने थे उन्हें सीधे सीधे ऐसे देखा जा सकता है

सबसे पहला और सबसे प्रमुख कारण : मुकदमों की आवक मुकदमों के निस्तारण से कई कई गुणा अधिक होना |

और इस बात को इस तरह से सरलता से समझा जा सकता है कि ये ठीक उस तरह से है जैसे जब तक एक थाली भोजन ख़त्म करने की कवायद होती है उतनी देर में वैसी दस बीस पचास थालियाँ अपने ख़त्म होने के लिए कतारबद्ध हो चुकी होती हैं | या फिर ये कहें जब तक एक बेरोजगार के लिए नौकरी की तलाश की जाती है उतने समय में पचास सौ बेरोजागार पंक्तिबद्ध हो चुके होते हैं |
हालाँकि इसके भी कई कारण हैं , और सबसे बड़ी हैरानी की बात ये है कि मुकदमों की आवक को कम कैसे किया जा सकता है ये विषय लंबित मुकदमों के निस्तारण हेतु किये जा रहे उपायों की फेहरिश्त में कहीं है ही नहीं |

अगले बहुत सारे कारणों में
प्रतिवर्ष बन और लागू किये जा रहे नए नए क़ानून
समाचार और सोशल मीडिया के माध्यम से अब इन कानूनों की जानकारी अवाम को होना
अदालत पहुँचने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की संस्कृति का पनपना
अधिवक्ताओं की बढ़ती   संख्या
नशे ,बेरोजगारी आदि के कारण बढ़ते अपराध
बदलती हुआ सामाजिक परिवेश व टूटते सामाजिक बंधन
न्यायालयों , न्यायाधीशों की कम संख्या
बहुस्तरीय न्याय प्रणाली के कारण होने वाला दीर्घकालीन विलम्ब
वाद विवाद से इतर दिशा निर्देश और मार्गदर्शन पाने के लिए दायर किये जा रहे मुक़दमे
इनके अलावा और भी बहुत से ऐसे कारण हैं जिन पर बारीकी से सोचा और कार्य किया जाना बहुत जरूरी है ......अगली पोस्टों में इन पर विस्तार से चर्चा करेंगे