गुरुवार, 12 सितंबर 2013

दंडव्यवस्था पर एक बहस









दिल्ली बलात्कार कांड की अंतिम परिणति या कहा जाए कि भारतीय न्याय व्यवस्था जो कम से कम त्रिस्तरीय तो है ही , उसके पहले चरण का अंतिम फ़ैसला अब आने को है । इस वक्त देश और पूरे समाज की निगाहें इस फ़ैसले की ओर लगी हुई हैं । आरोपियों को सभी धाराओं में दोषी ठहराए जाने के बाद अब जबकि उनको दी जाने वाली सज़ा पर भी बहस हो चुकी है तो अगले कुछ घंटों के भीतर ही माननीय अदालत द्वारा ये भी तय कर दिया जाएगा कि उन्हें अभी मौजूद दो अधिकतम सज़ाओं के विकल्प "उम्रकैद या फ़ांसी" में से कौन सी सज़ा दी जाएगी । चूंकि ये वो अपराध था जिसने पूरे देश को न सिर्फ़ उद्वेलित किया बल्कि महिलाओं के विरूद्द होने वाले अपराध और उनके शोषण को रोकने के लिए  प्रस्तावित और बरसों से लंबित कानून को पारित करने में अहम भूमिका निभाई । सरकार ने आनन फ़ानन में दिवंगत न्यायाधीश जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का भी गठन किया जिसने पूरे देश से इस मामले पर सुझाव और विचार मांग कर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । इसी के मद्देनज़र कानूनों में बदलाव करके न सिर्फ़ दंड व्यवस्था को कठोर किया गया बल्कि बलात्कार जैसे अपराध की परिभाषा को और विस्तृत करके " यौन शोषण " कर दिया गया ।



इस विशेष मुकदमे से इतर इससे पहले भी ऐसे मौके आते रहे हैं जब फ़ांसी और उम्रकैद की सज़ा पर न सिर्फ़ बहस उठ खडी हुई बल्कि पिछले दिनों तो दिल्ली की एक अदालत ने एक सप्ताह में ही पांच मुजरिमों को सीधे फ़ांसी की सज़ा सुनाई है । ज्ञात हो कि बलात्कार के मुजरिमों को फ़ांसी की सज़ा , धनंजय चटर्जी के  मुकदमे और उसे मिली फ़ांसी की सज़ा के समय से शुरू हुई थी , खासकर ये बात कि किसी सज़ा को सुनाए जाने से उसे परिणति तक पहुंचने में यानि उसे फ़ांसी मिलने में 13 वर्षों का लंबा समय लगा था । उस समय के बाद अनेक मुकदमों में जब जब भी किसी को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई हर बार इस अधिकतम सज़ा पर एक बहस उठ खडी होती रही है ।


दंड : विधिशास्त्र के अनुसार यदि निचोड में कहा जाए तो सामाजिक व्यवस्था के लिए जो कानून निर्मित किए जाते हैं उनके उल्लंघन को रोकने के लिए भय के रूप में जो शारीरिक , मानसिक , आर्थिक, या सामाजिक कष्ट पहुंचाया जाता है , वह दंड कहलाता है । दंड के विभिन्न सिद्धान्तों में मुख्यत: चार सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया है , जो प्रतिरोधात्मक , प्रतिशोधात्मक , निरोधात्मक , या सुधारात्मक सिद्धान्त कहलाते हैं । आधुनिक युग में एक नए सिद्धान्त उपचारत्मक सिद्धान्त को भी मान्यता दी गई है । विश्व के सभी देशों ने इन्हीं दंड सिद्धातों में से कोई न कोई सिद्धांत अपनाया व लागू किया हुआ है । किंतु इन सिद्धान्तों के प्रयोग और उनके अनुसार दी गई सज़ाओं से अपराध में कितनी कमी आई या कि सज़ा का अपराधियों में कितना भय बैठा इसका आकलन करने का शायद ही कभी प्रयास किया गया हो ।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो प्राचीन काल में भारत में मुख्यत: चार प्रकार की दंड व्यवस्थाएं प्रचलित थीं

वाकदंड या चेतावनी
प्रायश्चित
अर्थदंड
कारावास, मृत्युदंड , बध-दंड या अंग विच्छेद ।



कालांतर में अमानवीय दंड प्रथाओं के स्थान पर सुधारात्मक दंड व्यवस्था की ओर भारतीय विधि का झुकाव हुआ । किंतु इसके बावजूद भी चूंकि भारतीय विधि एक लिखित और इस कारण सीमित विधि की श्रेणी में आती थी इसलिए तय अपराधों के लिए एक नियत तय सज़ा को देने की  व्यवस्था ही बहाल रखी गई ।   हालांकि पिछले दो दशकों में भारतीय विधिक व्यवस्थाओं में तेज़ी से बदलाव देखने को मिले हैं और प्रयोग के तौर पर ही सही किंतु उन नई दंड प्रणालियों , जैसे सामाजिक संस्थानों में सेवा देना , आरोपियों पर अर्थदंड लगाकर उस राशि से पीडितों को सहायता देने आदि को भी आज़माया जाने लगा है ।

अब इस मुकदमे के संदर्भ में यदि इस क्रूरतम अपराध के लिए भारतीय कानून में उपलब्ध दो अधिकतम विकल्पों - आजीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच विमर्श किया जाए तो बेशक एक आम नागरिक और देश के समाज की भावना के अनुरूप मैं सोचूं तो यकीनन मुझे भी यही लगेगा कि फ़ांसी से कम कोई सज़ा इस जघन्य अपराध के लिए नाकाफ़ी साबित होगी । किंतु जब लंबी न्यायिक प्रक्रियाओं और पहले से ही फ़ांसी की सज़ा पाए अभियुक्तों की लंबी कतार देखता हूं तो मेरा संदेह और भी पुख्ता हो जाता है कि काश भारत भी उन अन्य पश्चिमी और कुछ और देशों की तरह "अपराध आधारित सज़ा " की व्यवस्था को अपना पाता तो ही ऐसे मामलों में न्याय पाने जैसा लग सकता है । ज्ञात हो कि एक उदाहरण से इसे ऐसा समझा जा सकता है कि श्रीलंका में एक व्यक्ति जिसने अपनी 67 वर्षीय मां के साथ बलात्कार किया था उसे अदालत ने 260 वर्षों की सज़ा सुनाई थी , ऐसी ही अकल्पनीय सज़ाएं पश्चिमी देशों में भी सुनाई जाती रही हैं । अभी हाल ही में किसी अभियुक्त की जेल में मौत हुई जिसे नौ सौ वर्षों की सज़ा सुनाई गई थी । इसका मंतव्य सिर्फ़ इतना संदेश देना होता है कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए उसकी सज़ा इतनी अधिक बनती है बेशक अपरधी की उम्र उससे बहुत कम ही क्यों न हो ।

कल इस समय तक इस मुकदमे का फ़ैसला आ चुका होगा , फ़िर इस बहस को आगे बढाएंगे ..जो आजीवन कारावास और  मृत्युदंड ..के बीच आगे बढेगी ..................

2 टिप्‍पणियां:

  1. krodh inke liye yahi saza sahi manta hai kintu dimag nahi .inka krity jaghanya tha to fansi to inhen mukt kar degi jabki saza to jeevan hi hai jise jeekar ye asli saja bhugat sakte hain .

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    1. हां शालिनी जी , एक मत यह भी सोचता है तो तार्किक भी है ।

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